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गीता के पांच श्लोक और उनके अर्थ 

गीता

भागवत गीता हिन्दू धर्म का वो ग्रन्थ है जिसमें जीवन के हर मोड़ का, जीवन के हर सवाल का और जीवन के हर रहस्य का जवाब है। व्यक्ति जब किसी भी विकट परिस्थिति में फंस जाए और उस वक्त उसे समझ न आए कि  वो इस समस्या से कैसे बाहर निकले तब सिर्फ एक ही चीज है जो उसे उसके इस सवाल का उत्तर दे सकती है और वो है भागवत गीता। गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो महाज्ञान दिया उससे अर्जुन को सही राह और उसके कर्म और धर्म का पता चला। यदि आप और हम भी गीता का पाठ रोज करे तो हमे भी जीवन जीने का सही तरीका पता चलेगा और हमे पता चलेगा कि हमारा कर्म क्या है और हमारा धर्म क्या है ? 

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आज की पोस्ट में हम आपको गीता के उन 5 श्लोक के अर्थ बताएंगे जिसने अर्जुन को उस वक्त सही रास्ता दिखाया था और आज हमे सही रास्ता दिखाएंगे

गीता के श्लोक और अर्थ

श्लोक :-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

अर्थ :-

इस श्लोक में श्री कृष्ण जो महाभारत युद्ध में उनके सारथी थे कह रहे हैं कि, हे अर्जुन तुम सिर्फ कर्म करो, क्योकि तुम्हारा अधिकार सिर्फ कर्म तक ही है। कर्म का क्या फल मिलेगा ये मेरी इच्छा पर निर्भर है। तुम्हे फल की इच्छा के बिना कर्म करते जाना जाना है। तुम्हे तुम्हारे कर्म का क्या फल देना है ये मेरी इच्छा पर निर्भर करता है क्योकि कर्म का फल देना मेरा अधिकार है।

इस श्लोक से हमें ये पता चलता है कि व्यक्ति को हमेशा अपने कर्म के रास्ते पर चलते जाना चाहिए बिना ये सोचे कि हमे हमारे कर्म का फल क्या मिलेगा। आप कर्म अच्छे करोगे तो ईश्वर तुम्हे उसका अच्छा फल देंगे और अगर गलत रास्ते पर चलकर अपना कर्म करोगे तो ईश्वर तुम्हे उसका फल सज़ा के रूप में देंगे। अब ये इंसान के हाथ में हैं ही वो ईश्वर से अच्छा फल और उनका आशीर्वाद चाहता है या उनके हाथो सजा पाना चाहता है।

श्लोक :-

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।

अर्थ :-

महाभारत के इस श्लोक में श्री कृष्ण कह रहे हैं, हे अर्जुन, मैं ऋषि मुनियों और संतो को राक्षसों से सुरक्षित करने के लिए और दुष्टों का संहार करने इस धरती पर बार बार जन्म लेता हूँ। धर्म की स्थापना के लिए मैं सदियों से इस पावन धरती पर अवतरित होता रहा हूँ।

इस श्लोक से हमे पता चलता है कि जब जब इस धरती पर पाप बढता है, जब जब दुष्टों का कहर मासूम और निर्दोष लोगो को परेशान और दुखी करता है तब तब ईश्वर इस धरती पर किसी न किसी रूप में जन्म लेते हैं और धरती को और लोगो को उन राक्षसों से बचाते हैं।  महाभारत काल में भी दुर्योधन के संहार के लिए, अपने मामा शकुनी का विनाश करने के लिए और राक्षसों के सर्वनाश के लिए श्री कृष्ण ने देवकी माँ की कोख से मथुरा में जन्म लिया था।

श्लोक :-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

अर्थ :-

जब महाभारत का युद प्रारंभ होने जा रहा था तब अपने सामने अपने परिवार और गुरु को देखकर अर्जुन घबरा उठे थे और दुखी होकर श्री कृष्ण से कहते हैं कि हे वासुदेव, मेरे सामने मेरे गुरु हैं। वो भले ही लालच में आकर बुराई का साथ दे रहे हैं लेकिन मैं उनका शिष्य होकर उनका वध कैसे कर सकता हूँ। उनका वध करने से अच्छा है हम हार मानकर पीछे हट जाए और इस युद्ध में उन्हें मारकर हम जीत भी जाएगे तो भी वो जीत मेरे गुरु और मेरे परिवार के खून से रंगी होगी।  मुझे ऐसी जीत नही चाहिए।

श्लोक :-

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः

पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे

शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।

अर्थ :-

अर्जुन अपने सामने अपने घरवालो को देखकर दुखी हो जाते हैं और अपने आप को बहुत दुर्बल  महसूस करते हैं। वो कृष्ण जी से कह रहे हैं हे वासुदेव। मैं अपना धीरज, अपना धैर्य खोता जा रहा हूँ। मेरे कर्तव्य क्या हैं ये मैं भूल रहा हूँ। आप मेरे गुरु हैं, मेरी सखा हैं आप  मुझे बताओ मुझे क्या करना चाहिए और मेरे लिए क्या अच्छा है। मैं आपकी शरण में हूँ, आप कृपा करके मुझे इस दुविधा से बाहर निकाले और उपदेश दें।

ये वो वक्त है जब अर्जुन अपने परिवार को और अपने गुरुजनों को अपने सामने अपने शत्रु के साथ युद्ध करने के लिए आता देखते हैं तब वो दुखी हो जाती हैं और उन्हें लगता है जिन्होंने उन्हें सिखाया उनके मारकर हमे जीत कभी नही मिलेगी और अगर मिल भी जाएगी वो जीत नही होगी क्योकि अपनों को मारकर और अपने गुरु का अपमान करके किसी भी शिष्य को इस संसार में कुछ न मिला है। 

श्लोक :-

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

अर्थ :-

इस श्लोक में श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं की तुम्हारा मन क्रोध के कारण बार बार दुर्बल हो जाता है और तुम्हारी याददाश्त भी धूमिल हो जाती है। ऐसा करने से धीरे धीरे बुद्धि का विनाश होता है और जिस व्यक्ति की बुद्धि का विनाश हो जाए, वो स्वयं भी खत्म हो जाता है। 

इसका अर्थ है कि व्यक्ति को कभी भी क्रोध में आकर कोई फैसला नही करना चाहिए क्योकि क्रोध मनुष्य की बुद्धि को बेकार बना देता है  और वो सच और झूठ, सही और गलत में अंतर करना भूल जाता है और वो कर बैठता है जो उसे नही करना चाहिए।


क्या आप भी रोज गीता का पाठ करते हैं?

गीता के पांच श्लोक और उनके अर्थ 
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